काजल के पर्वत पर चढ़ना – चढ़कर पार उतरना,
बहुत कठिन है निष्कलंक रहकर ये सब करना ।
वर्तमान दौर की पत्रकारिता में बालकवि बैरागी की उपरोक्त पंक्तियां बिल्कुल सटीक बैठती है । एक ऐसा दौर जिसमें पक्ष – विपक्ष दोनों के अपने अलग-अलग पत्रकार हों , उसमें बेबाकी की उम्मीद किससे किया जाय ! आखिर राजनैतिक पृष्ठभूमि से दूर आम आदमी किधर जाय ? और एक निष्पक्ष व बेबाक पत्रकार पत्रकारिता में रमे या अपनी सफाई पेश करने में ही अपने कीमती वक्त की कीमत अदा करे ! लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ लोकतांत्रिक दांव पेंच से ही बाहर कैसे निकले ये सबसे बड़ा सवाल है। कभी सत्ता पक्ष की हिमाकत करने वाले पत्रकारों पर चाटुकारिता तो कभी सत्ता के विरोध में लिखने वालों पर द्वेषपूर्ण व्यवहार का आरोप लगता रहा है , बावजूद इसके भी दोनों पक्ष ढूंढते पत्रकार ही हैं । हां मानता हूं कि लाख दुश्वारियां हैं लेकिन इसका मतलब कदापि ये नहीं है कि समाज में स्वच्छंद कलमकार नहीं हैं , पर चुनौतियां बेजोड़ हैं उनके सामने ।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर ख़बरें लिखने पढ़ने वालों के खिलाफ सोशल मीडिया पर ही लिखकर जब फुर्सत मिलती है तो हम खुद के चैनल/पेज पर ख़बरें अपलोड करते हैं। पर सुखद ये है कि तमाम नौकरशाहों और सफेदपोशों के दरवाजों को खटखटाने के बाद थक-हार कर लौटते आम आदमी की उम्मीद अभी भी एक सामान्य से दिखने वाले पत्रकार में जिंदा है । किसी पीड़ित को अगर एक सामान्य सा व्यक्ति कलम या माइक – कैमरे के दम पर न्याय दिलाने की हिम्मत करता है तो संकेत अच्छे हैं । भ्रष्टाचार से सुबह से शाम और शाम से सुबह करने वाले अगर आपकी लेखनी से डर रहे हैं तो संकेत अच्छे हैं । बस लेखनी की धार में सामर्थ्य इतना हो कि वो वो धारा बदल सके बाकी विचारधारा स्वतंत्रता की गोद में ही पलती है ।
– पत्रकार सिद्धार्थ शुक्ला
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