अमेठी का नाम आते ही गांधी परिवार की चर्चा सबसे पहले शुरू होती है। असल में यहां की राजनीतिक तस्वीर ही कुछ ऐसी है। बेहद रोचक…रोमांचित करने वाली…और सबसे बड़ी बात चौंकाने वाली भी। चुनावी इतिहास ही कुछ ऐसा है। यहां पर दो बार गांधी परिवार के बीच ही मुकाबला हो चुका है। हैरानी की बात तो यह है कि दोनों बार विरासत एक बड़ा मुद्दा था। पहले चुनाव में वारिस कौन तो दूसरे चुनाव में असली गांधी कौन की गूंज। यह बात अलग है कि दोनों चुनावों में शिकस्त खाने वाले गांधी ने दोबारा से अमेठी की तरफ घूमकर भी नहीं देखा।
वर्ष 1980 में संजय गांधी ने यहां से पहली बार जीत दर्ज की। उसी साल विमान हादसे में उनकी मौत के बाद 1981 में हुए उपचुनाव में राजीव गांधी मैदान में उतरे। यहां से उन्होंने अपनी राजनीतिक पारी शुरू की। इसके बाद सियासत ने रंग दिखाना शुरू कर दिया। वर्ष 1984 का चुनाव उस वक्त दिलचस्प हो गया जब कांग्रेस के राजीव गांधी के सामने उनके स्वर्गीय छोटे भाई संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी ने निर्दल प्रत्याशी के तौर पर मोर्चा खोल दिया।
उलझन में थी जनता… मेनका गांधी ने 1982 से ही अमेठी का दौरा शुरू कर सक्रियता बढ़ा दी थी। ऐसे में जब वह चुनाव में उतरीं तो अमेठी की जनता उलझन में पड़ गई। एक ओर इंदिरा की हत्या के बाद जनता की सहानुभूति राजीव गांधी के साथ थी तो वहीं दूसरी ओर अमेठी के सांसद रहे संजय गांधी की विधवा मेनका गांधी के प्रति आत्मीय लगाव, लेकिन बाजी राजीव ने ही मारी।
असली बनाम नकली गांधी की रही गूंज… दूसरा मुकाबला वर्ष 1989 में हुआ, जब कांग्रेस के राजीव गांधी के सामने महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी ने ताल ठोंक दी। उस वक्त जनता दल व भाजपा ने संयुक्त रूप से राजमोहन गांधी पर भरोसा जताया था। इस चुनाव में असली बनाम नकली गांधी का मुद्दा खूब उछला। कई बड़े दिग्गज नेताओं ने सभा की। आरोप प्रत्यारोप के खूब शब्दवाण चले, लेकिन अमेठी की जनता ने एक बार फिर राजीव गांधी का साथ दिया।
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