आप जानते हैं क्या होते हैं डी-वोटर ?

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कौन होते हैं डी-वोटर, जो देश में रहकर भी नहीं कर पाते मतदान
डी-वोटर के लिए डाउटफुल शब्द भी इस्तेमाल होता है, इसलिए इन्हें डाउटफुल वोटर यानी संदिग्ध मतदाता भी कहते हैं. आइए जानते हैं ये किस तरह के वोटर हैं और इनके पास क्यों मतदान करने का अधिकार नहीं होता.
लोकसभा चुनाव के चौथे चरण के लिए 13 मई को मतदान होगा. राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश की 96 सीटों के लिए मतदाता वोटिंग करेंगे. देश में कई तरह के मतदाता हैं. जैसे- आम मतदाता, सेवा मतदाता और NRI वोटर्स. दिलचस्प बात है कि एक ऐसी भी कैटेगरी है जिनके नाम में तो वोटर है, लेकिन वो मतदान नहीं कर सकते. इन्हें डी-वोटर के नाम से जाना जाता है.
डी-वोटर के लिए डाउटफुल शब्द भी इस्तेमाल होता है, इसलिए इन्हें डाउटफुल वोटर यानी संदिग्ध मतदाता भी कहते हैं. आइए जानते हैं ये किस तरह के वोटर हैं और इनके पास क्यों मतदान करने का अधिकार नहीं होता.

क्या होते हैं डी-वोटर?
आसान भाषा में समझें तो ये ऐसे वोटर्स होते हैं जो अब तक अपनी नागरिकता को साबित नहीं कर पाए हैं. नागरिकता साबित करने के मामले में ये संदिग्ध हैं. नागरिकता स्पष्ट न होने के कारण इन्हें वोटिंग करने का अधिकार नहीं दिया गया है.
जैसे- साल 2015 में महिंद्र दास नाम के शख्स को डी-वोटर घोषित किया गया था. बाद में साल 2019 में फॉरेनर ट्रिब्यूनल निर्णय सुनाते हुए महिंद्रा को फॉर्नर (विदेशी) घोषित कर दिया. असम सरकार के मुताबिक, उनके राज्य में ऐसे लोगों की संख्या तकरीबन एक लाख है. ये वो लोग हैं जिनकी नागरिकता पर भारत सरकार को संदेह है. असम में जिस तरह से नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) और सिटिजन अमेंडमेंट एक्ट (सीएए) का मुद्दा है उसी तरह डी-वोटर भी एक मुद्दा है.

कब-कैसे घोषित किया गया?
साल 1997 में भारतीय चुनाव आयोग ने विदेशी नागरिकों की पहचान के लिए एक मुहिम चलाई. इसके तहत उन्होंने उन लोगों के नाम सूची में रजिस्टर किए जिनकी नागरिकता को लेकर विवाद या फिर संदेह था. तत्कालीन सरकार ने 24 मार्च 1971 की तारीख तय की. इस तारीख से पहले भारत आए लोगों को वैध नागरिक जबकि बाद में आए लोगों को अवैध कहा गया. इस तारीख को रखने की वजह बांग्लादेश में आजादी के लिए होने वाला युद्ध था.

भारत में किसी व्यक्ति को विदेशी घोषित करने का अधिकार फॉरेनर ट्रिब्यूनल के पास है. भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने फॉरेनर ट्रिब्यूनल ऑर्डर 1964 में पारित किया था. इस ट्रिब्यूनल के तहत देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के जिला मजिस्ट्रेट को यह पावर दी गई है कि वह निर्धारित करें कि भारत में कोई शख्स वैध तरीके से रह रहा है या अवैध तरीके से. इसी आधार पर उसे भारतीय और विदेशी घोषित किया जाता है. यह ट्रिब्यूनल एक अर्ध न्यायिक संस्था.

देश में होने वाले चुनावों में ये डी-वोटर मतदान नहीं कर सकते. लेकिन ये मुद्दा केवल लोगों के मतदान न कर पाने तक सीमित नहीं है. इसमें इन लोगों को कल्याणकारी योजनाओं का लाभ न मिल पाना भी शामिल है. गरीबी और अभावों में जीने वाले ये लोग आर्थिक और सामाजिक तंगी से जूझते रहते हैं. इस कारण राज्य के जिस इलाके मे ये रहते हैं वहां असमानता और गरीबी की समस्या पैदा हो जाती है. यह मुद्दा सामाजिक और आर्थिक के साथ-साथ राजनीतिक भी है.

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